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Showing posts from March, 2022

मोनो एक्टिंग (एकल अभिनय)

मामाजी ज्यादातर गंभीर मिजाज के थे | जितनी जरूरत हो उतनी बात करना, हमेशा मेहनत करना, दुसरो की मदद करना, अपने काम में बिजी रहना | उनका एक दूसरा रूप भी था जो बहुत ही खुशमिजाज था | वो उनकी मोनो एक्टिंग को देखने के बाद पता चला |         मुझे याद है हमारे समाज के नोहरे में नवरात्रि में बहुत अच्छा गरबा सम्मेलन होता था | बहुत अच्छा डांडिया खेला जाता था | नो ही दिन समाज के बहुत से लोग इकट्ठे होते थे | गरबा प्रांगण में सभी उम्र के लोगो के अलग अलग गोले(घेरे) बनते थे | और एक एक घंटे के गरबे के राउंड चलते थे | बहुत ज्यादा मजा आता था | रात को एक एक बजे तक गरबे होते थे | सारे समाज के लोग वही इकट्ठे होते थे | मामाजी भी गरबे के प्रोग्राम में बढ़ चढ़कर शामिल होते थे |  नवरात्रि के अंतिम दिनों में बहुत सारे कॉम्पिटिशंस भी होते थे | जैसे फैंसी ड्रेस, बेस्ट गरबा डांस, नाटक प्रतियोगिता, 1 minute प्रतियोगिता, गवरी, कुर्सी रेस, अंतराक्षरी प्रतियोगिता आदि | नवें दिन रात्रि जागरण भी होता था | और दशहरे के दिन सारे विजेताओं को पुरुस्कार वितरित किये जाते...

टूथब्रश

मामाजी का टूथब्रश से बहुत लगाव था | मामाजी दिन में खाना खाने के बाद और रात को खाना खाने के बाद टूथब्रश जरूर करते थे | ये उनकी आदत में था | टूथब्रश से जुड़ा एक किस्सा याद आ रहा है | मेरे दसवीं बोर्ड के एग्जाम चल रहे थे | दसवीं बोर्ड के एग्जाम पेपर का टाइम दिन का रहता था| दिन में 3 बजे से पेपर शुरू होता था | और मेरा एग्जाम सेंटर गवर्नमेंट स्कूल अम्बामाता में आया था | मामा मुझे एग्जाम सेंटर पर छोड़ने के लिए लंच टाइम पर आते थे | यह सच में मेरे लिए बड़ी बात थी क्योंकि अपने काम को बीच में छोड़कर मुझे सेंटर पर छोड़ने के लिए आते थे कई बार में बोलता भी था की में ऑटो में चला जाऊंगा लेकिन वो कहते थे आते समय ऑटो में आ जाना | जाते समय कहा ऑटो के चक्कर में पड़ेगा | एक बार मामा ऑफिस से आने में थोड़ा लेट हो गए तो आते ही फटाफट खाना खाया फिर जल्दी जल्दी बात करते हुए ब्रश पर पेस्ट लगाके दन्त मंजन करने लगे | लेकिन जैसे ही पेस्ट मुँह में गया तो बोला की ये पेस्ट को क्या हो गया ये इतना कड़वा क्यों लग रहा? फिर फटाफट मुँह धोने लगे ध्यान से देखा तो पता चला की जल्द बाज़ी में उन्होंने टूथ पेस्ट की बजाय...

छोटा चेतन

मामाजी हम सब बच्चों को बहुत प्यार करते थे | हमें वो समय समय पर मनोरंजन करवाने के लिए कुछ कुछ करते रहते थे | वैसे अधिकतर जब भी उदयपुर में सर्कस लगता था तो वो हम सब बच्चो को सर्कस लेकर जाते थे |  मुझे आज भी याद है एक बार सर्कस बी. एन ग्राउंड में लगा था | तो वो हम सब बच्चो को सर्कस दिखाने के लिए लेके गए थे | वो भी एक ही स्कूटर पर | वो आधे बच्चो को लेकर आते फिर मेरे बड़े भाई को जिम्मेदारी देकर यही खड़े रहना फिर आधे बच्चो को लेने जाते | स्कूटर तो एक ही था और सब बच्चे छोटे थे ऑटो में भी नहीं आ सकते तो वो इस तरह से डबल चक्कर करके हमको सबको सर्कस दिखने लेके जाते थे | इसी तरह मुझे याद है एक बार बच्चो की मूवी लगी थी छोटा चेतन वो भी 3D में चेतक सिनेमा में | हमको पता चला की इसमें हमको सिनेमा हॉल में घुसते समय चश्मा मिलेगा |  इस तरह की 3D मूवी का अनुभव लेना भी हम सब बच्चों का पहली बार ही था |  पर दिमाग में एक प्रश्न भी था की जिनके चश्मा लग रहा है पहले से वो इस मूवी को कैसे देखेंगे ? अपना चश्मा हटाके ये 3D वाला चश्मा लगाएंगे? या फिर कैसे देखेंगे? क्योकि हमारे बच्चों क...

गर्मी की छुट्टियाँ

हमारे स्कूल में दो महीने की गर्मी की छुट्टियाँ पड़ती थी |  मुझे स्कूल की गर्मी की छुट्टियाँ बहुत अच्छी लगती थी ज्यादातर गर्मी की छुट्टियों में  मै मामा के यहाँ ही रहता था | मुझे वैसे तो मामा से बहुत डर लगता था लेकिन मामा  के यहाँ मजा भी बहुत आता था | मामा के यहाँ आनंद ही आनंद था |  गुलाबबाग जाना, दिन में कुल्फ़ी के लुफ्त उठाना, टीवी पर वीडियो गेम खेलना, शाम को छत पर क्रिकेट खेलना, पतंग उड़ाना, लल्लू राम की कचोरी खाना, रात को नाना के साथ घूमने जाना और तारामल की दुकान पर दूध पीना, रबड़ी खाना आदि आदि|   नाना और मामा ने हमको बचपन में बहुत मजे कराये |  हमारा बचपन बहुत अच्छा निकला |  इन्ही गर्मी की छुट्टियों में एक मजा था रोज सुबह मामा हमको तैराकी सिखाने के लिए फतहसागर लेकर जाते थे | रोज सुबह हमको जल्दी उठा देते थे फिर स्कूटर पर फतहसागर लेकर जाते थे | साथ में लेते थे टायर का टयूब और रस्सी |  हम सब बच्चो को एक एक टयूब पहनाकर पानी में फेंक देते थे | हम वहाँ तैरना तो नहीं सीखते खाली पानी में खेलते थे एक दूसरे को पकड़ना | फिर मामा निचे स...

मामा गए दिल्ली

मामा तीन चार महीने में एक बार दिल्ली जरूर जाते थे | घूमने फिरने नहीं बल्कि उनके काम के सिलसिले में | उनका काम था गांव गांव जाकर इलेक्ट्रॉनिक की दुकानों पर होलसेल में सामान बेचना | इसके लिए वो दिल्ली से सामान लेकर आते थे |    एक बार जाते तो दो से तीन दिन में आते थे | स्कूल के समय तो ज्यादा कुछ अंतर नहीं होता था लेकिन जब गर्मी की छुट्टियाँ हो और मामाजी दिल्ली जा रहे है तो पूरे दिन का शेड्यूल हमारे हिसाब से होता | ना टाइम पर उठना ना टाइम सोना | ना टाइम पर खाना खाना |  पास में ही वीडियो गेम और केसीटे बेचने  वाले अंकल की दूकान थी उनसे अच्छी जान पहचान भी हो गयी थी रात को जब वो दूकान बंद कर रहे होते तो उनके वहा जाते और नयी वीडियो गेम की कैसेट लेके आ जाते और बोलते सुबह दूकान खुलते समय ही वापस कर देंगे |  फिर रात भर बारी बारी से नंबर लगाकर गेम खेलते | आदमी मरता तो दुसरे को चांस मिलता | और सुबह कैसेट वापस | वो भी क्या मजे थे कौन गेम में कितनी आगे तक पहुँचता है | यही हमारे जीवन का बहुत बड़ा लक्ष्य था |   वैसे तो वी...

दिवाली और नए कपड़े

मैंने अपना ज्यादातर बचपन अपने मामा के यहाँ ही बिताया था | मुझे वहाँ रहने में अच्छा लगता था इसके बहुत से कारण थे कभी और बताऊंगा |  आज तो दिवाली के नए कपड़ो के बारे में बताना चाहता हूँ |  हमें ज्यादातर साल में एक बार ही नए कपडे मिलते थे | वो मिलते थे दिवाली के दिनों में या फिर परिवार के किसी ख़ास सगे सम्बन्धी की शादी के लिए |   दिवाली की एक नयी ड्रेस तो लगभग फिक्स ही थी |  दिवाली से सात - आठ दिन पहले मामा बुलाते और बोलते थे जाओ वहा दर्जी के दुकान पर जाकर नाप देके आ जाओ |  दरजी भी हमेशा फिक्स ही था | दरजी की दुकान पास में ही थी हम वहा पर जाते और बस नाप देके आ जाते बिना कुछ सवाल जवाब किये |   मुझे याद हैं अधिकतर हमारे पैंट शर्ट ही सिलकर आते थे और हां कभी कभी सफारी सूट |  इसका भी अलग किस्सा था हमे कपड़ो का कलर, कपड़ो की डिजाइन सब कपडे सिल कर आने के बाद ही पता चलती थी की शर्ट कैसा है प्लेन है या चोकडिया चैक्स वाला या लाइन वाला, पैंट कोनसे कलर की है आदि आदि | कभी पूछने की हिम्मत नहीं होती थी के पहले ही पूछ ले की कौनसा कपडा सिलने को दिया ह...