मामा तीन चार महीने में एक बार दिल्ली जरूर जाते थे | घूमने फिरने नहीं बल्कि उनके काम के सिलसिले में | उनका काम था गांव गांव जाकर इलेक्ट्रॉनिक की दुकानों पर होलसेल में सामान बेचना | इसके लिए वो दिल्ली से सामान लेकर आते थे |
एक बार जाते तो दो से तीन दिन में आते थे | स्कूल के समय तो ज्यादा कुछ अंतर नहीं होता था लेकिन जब गर्मी की छुट्टियाँ हो और मामाजी दिल्ली जा रहे है तो पूरे दिन का शेड्यूल हमारे हिसाब से होता | ना टाइम पर उठना ना टाइम सोना | ना टाइम पर खाना खाना |
पास में ही वीडियो गेम और केसीटे बेचने वाले अंकल की दूकान थी उनसे अच्छी जान पहचान भी हो गयी थी रात को जब वो दूकान बंद कर रहे होते तो उनके वहा जाते और नयी वीडियो गेम की कैसेट लेके आ जाते और बोलते सुबह दूकान खुलते समय ही वापस कर देंगे | फिर रात भर बारी बारी से नंबर लगाकर गेम खेलते | आदमी मरता तो दुसरे को चांस मिलता | और सुबह कैसेट वापस | वो भी क्या मजे थे कौन गेम में कितनी आगे तक पहुँचता है | यही हमारे जीवन का बहुत बड़ा लक्ष्य था |
वैसे तो वीडियो गेम भी मामा ही लेके आये थे | वीडियो गेम क्या हर सुख सुविधा की चीज़ मामा की ही देन थी | वीडियो गेम, खिलोने, कैरम बोट, बैटमिन्टन, वॉकमैन, रेडियो आदि आदि
जब भी मामा दिल्ली जाते तो वहा से सबके लिए कुछ न कुछ लाते | कभी नयी ड्रेस, कभी हाथ वाला वीडियो गेम, कभी कोई खिलोने और कभी सबके लिए वाटरप्रूफ वाली नंबर वाली घड़ियाँ जिनमे लाइट भी लगती थी | काटे वाली घड़ी देखना आता तो नहीं था इसलिए नंबर वाली घड़ियाँ |
शान से घड़ी पहनते और दूसरे को जलाते और दूसरे दोस्तों को बोलते की ये अलग घड़ी है मेरे मामा दिल्ली से लेके आये हैं | इसमें लाइट भी लगती हैं इसमें रेडियम भी है | रात में चमकती भी है पानी में डालो तो कुछ नहीं होता इसको | बहुत ही स्पेशल घड़ी है |
सच में वो नंबर वाली घड़ियाँ स्पेशल ही होती थी जिसको हम रात को भी पहन कर सोते थे |
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