मैंने अपना ज्यादातर बचपन अपने मामा के यहाँ ही बिताया था | मुझे वहाँ रहने में अच्छा लगता था इसके बहुत से कारण थे कभी और बताऊंगा |
आज तो दिवाली के नए कपड़ो के बारे में बताना चाहता हूँ | हमें ज्यादातर साल में एक बार ही नए कपडे मिलते थे | वो मिलते थे दिवाली के दिनों में या फिर परिवार के किसी ख़ास सगे सम्बन्धी की शादी के लिए |
दिवाली की एक नयी ड्रेस तो लगभग फिक्स ही थी | दिवाली से सात - आठ दिन पहले मामा बुलाते और बोलते थे जाओ वहा दर्जी के दुकान पर जाकर नाप देके आ जाओ | दरजी भी हमेशा फिक्स ही था | दरजी की दुकान पास में ही थी हम वहा पर जाते और बस नाप देके आ जाते बिना कुछ सवाल जवाब किये |
मुझे याद हैं अधिकतर हमारे पैंट शर्ट ही सिलकर आते थे और हां कभी कभी सफारी सूट |
इसका भी अलग किस्सा था हमे कपड़ो का कलर, कपड़ो की डिजाइन सब कपडे सिल कर आने के बाद ही पता चलती थी की शर्ट कैसा है प्लेन है या चोकडिया चैक्स वाला या लाइन वाला, पैंट कोनसे कलर की है आदि आदि | कभी पूछने की हिम्मत नहीं होती थी के पहले ही पूछ ले की कौनसा कपडा सिलने को दिया है ?
एक बार जब मै नाप देने गया तो हिम्मत करके मेने दरजी को आखिरकार बोल ही दिया की मेरी पैंट जो बनाओगे ना उसको निचे से नैरो बॉटम रखना और जो जेब रखो वो सिंपल ना रखकर क्रॉस पॉकेट रखना |
फिर पैंट जब बनकर आयी तो दिवाली के दिन मुझे मामा के सामने जाने में डर लग रहा था लेकिन गनीमत रही की मामाजी ने मेरी पैंट पर ध्यान नहीं दिया और मै डॉट खाने से बच गया |
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